आज कई देश कंगाल जो चुके हैं | पूंजीवाद ने सबको खा डाला है ! आज भी
पूंजीवाद फैलता जा रहा है, विकल्पहीन बनकर | अमीर और अमीर तथा ग़रीब और ग़रीब हुए हैं |आय – असमानता का फ़ासला बेहद गहरा गया है , यहाँ तक कि साम्यवादी देश भी इस लानत से अछूते नहीं हैं | पूंजीवाद ने ज़रूरतें बढ़ाकर ग़रीबों की नामनिहाद आय पर डाका डाला है और उन्हें ग़रीब बनाए रखा है | सरकारें इन्हें बहला – फुसला कर , झुनझुने देकर इनसे कर्मठता छीन ली है | एक अध्ययन के अनुसार, दुनिया के 62 सबसे अमीर लोगों के पास दुनियाभर के गरीबों की 50 फीसदी आबादी के बराबर धन-संपदा है। खास बात यह है कि इन 62 अमीरों में महिलाओं की संख्या मात्र 9 है। अमीरों को और अमीर बनानेवाली नीतियों के चलते दुनिया में अन्य खराबियों के फैलाव के साथ आमजन का शोषण – दमन बढ़ा है | मगर अब इसकी किसी को चिंता नहीं रही ! दुनिया के सभी देश आज प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पूंजीवाद के फैलाव में ही अपनी भलाई समझते हैं | सभी अपने – अपने देशों में पूंजीपतियों के स्वागत के पलक- पांवड़े बिछा रखे हैं , मानो वही अब उनके सब कुछ हों | उनको और अमीर बनाने की चिंता में अपना पूरा समय दे रहे हैं | इस प्रक्रिया में जो कुछ [ उच्छिष्ट ] बचता है , वह उनका होता है ? अर्थात हड्डी चूसकर ही दुनिया के सभी देश जिंदा हैं | असल में दुनिया अब अमीरों की है | भारत में 21.9 फ़ीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने को मजबूर है। ये वे लोग हैं, जिनकी प्रतिदिन की कमाई 50 रुपए से भी कम है, जिन्हें रोज खाने के लिए रोटी भी नसीब होती। वे एक टाइम ही खाना खा पाते हैं | हमारे देश में कितनी गरीबी है इसे लेकर हमेशा विवाद रहा है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि गरीबी के आकलन का पैमाना कैसा है ? इसके आकलन में कितनी ईमानदारी और निष्पक्षता बरती गई है ? आम तौर पर देखा गया है कि सत्ता पक्ष देश की ग़रीबी को घटता हुआ दिखाता है और अपनी नीतियों की सफलता की बात फैलाकर वाहवाही लूटता है | यही कारण है कि आंकड़ों में ग़रीबी वास्तविकता से कम दिखती या दिखाई जाती रही है। जबकि सच्चाई यह है कि देश में एक तिहाई परिवार गरीब हैं और ऐसा हर पांचवां परिवार अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग से ताल्लुक़ रखता है। अब सरकार ने आवास योजनाएं चलाकर इनके आवास की स्थिति सुधारी है , वरना देश में आज ग्रामीण भारत के सवा तेरह फीसद परिवार ऐसे थे जो सिर्फ़ एक कमरे के कच्चे मकान में रहते थे | रंगराजन समिति ने तय किया था कि अगर कोई ग्रामीण व्यक्ति 32 रुपए रोज़ाना से अधिक ख़र्च करता है, तो वह ग़रीब नहीं है। इस पहले बनी तेंदुलकर समिति ने ग़रीबी की रेखा प्रति ग्रामीण व्यक्ति के लिए 27 रुपए रोजाना तय की थी। ज़ाहिर है , ये दोनों पैमाने पूरी तरह असन्तोषजनक हैं | असंगठित क्षेत्र की रोजगार-असुरक्षा और कृषि क्षेत्र के व्यापक संकट ने ग़रीबी को मापने के अब तक अपनाए जाते रहे पैमानों पर सवालिया निशान लगा दिया है।
वास्तव में देश की बहुत बड़ी आबादी भूखे पेट जीवन गुज़ारने के लिए अभिशप्त है | वास्तव में भारत भूखे लोगों का घर है | विश्व की सबसे अधिक भूख से पीड़ित आबादी यहां निवास करती है। कोरोना के चलते और अन्य कारणों से भारत सरकार और राज्य सरकारों ने फ़्री अनाज और खाद्यान्न की व्यवस्था कराई है , लेकिन यह कब तक चलेगा ? जनता को राहत पहुँचाने वाली योजनाएं कब तक चलेंगी ? देश की अर्थव्यवस्था की कचूमर निकलने में कितनी देर है ? जो मदद या आय आ जाती है या मिल जाती है , उसे महंगाई चट कर जाती है ! फिर बचा क्या ? वर्तमान में दाल, सब्जी, खाद्य तेल और अब चावल आदि के दाम आसमान छू रहे हैं। देश का समावेशी विकास कब होगा और कौन करेगा ? यह तो आनेवाला समय ही बताएगा | अफ़सोस, ये सच्चाइयाँ चिंता के विषय न कभी थींऔर न आज हैं ! 1971 के आम चुनाव में कांग्रेस नेता इंदिरा गाँधी ने ” ग़रीबी हटाओ ” का नारा दिया था | चौथी पंचवर्षीय योजना [ 19 69 – 74 ] का यह मुख्य विषय रहा , लेकिन क्या यह मतों की प्राप्ति तक सीमित न था ? अगर ऐसा न था , तो ग़रीबी कभी क्यों नहीं घटी ? हमारी सतही इच्छाशक्ति कही सबको ले डूबती है !