” उम्मीद की लौ ” मुझे काफ़ी समय पहले ही प्राप्त हो गई थी , लेकिन कुछ अपरिहार्य व्यस्तता के चलते इसे ठीक से न पढ़ सका और न ही इस बाबत सोच से बढ़कर कुछ अमली कोशिश ही कर सका | इधर के दिनों में इसको पढ़ लिया है और वह भी जाग्रत मन से | यह मेधावी एवं प्रखर युवा कवि दिलीप कुमार पांडेय का प्रथम काव्य – संग्रह है , जो 67 काव्य – गुच्छों से आच्छादित है | नाना मनोभावों का गुलदस्ता है …. गुल से गुल – उन्मेष की सतत प्रक्रिया है, जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए , कम है |
सबसे पहले इसके टाइटल पर आते है | शीर्षक में भविष्य की आशा का संचार सुखद है , जो लौ बनकर मार्ग – बाधाओं का शमन करती है | ” उम्मीद की लौ ” मनोवृत्ति का मनोरम शाहकार है | आवरण भी इसी की अक्कासी करता है |
इस काव्य – संग्रह की प्रत्येक कविता अपने आपमें एक स्वतंत्र चेतना की इकाई है, जो जीवन के विविध आयामों को विविध रूपों एवं स्वरों / शैलियों में मूर्तरूप देती है | अपने उद्देश्य का सटीक अंकन करती हैं – हृदय पटल पर और मानस – पटल पर भी | कहीं तम नहीं छोड़ती , यहां तक कि जो छोड़ती भी है , वह कुछ ऐसे पल हैं , जो शेष रहते हैं –
” ज़िंदगी में वही पल शेष रहते हैं
जिसे हमने प्यार किया
जो मधुर थे और ख़ुशबू बिखेरते रहते थे
एक छायादार वृक्ष की भाँति “
रसहीन जीवन का कोई आनंद नहीं , इसलिए कवि इसे सरित बनाने का आकांक्षी है | लेकिन प्रपंचों से दूर आनंद अभीष्ट है | ” इन दिनों फ़ुरसत कहाँ ” का लब्बोलुबाब यही तो है | जीवन का विरोधाभास और दुरभिसंधियों का पर्दाफ़ाश कवि इन शब्दों में करता है –
” किसी के पास ,
लेकिन नहीं
बहुत समय है
प्रपंच के लिए
सताने लिए
बतलाने के लिए
देश को तोड़ने के लिए
लांछन लगाने के लिए
मुद्दे ही मुद्दे
लिखने के लिए “
फिर भी यह नाटक ख़त्म होने का नाम भी नहीं लेता ! विस्तार पाता , बनावटी चेहरा बना लेता | जीवन को सार्थक नहीं कर पाता | कवि की चिंता , कवि के शब्दों में –
” यह नाटक ख़त्म होने
का नाम ही नहीं लेता
नक़ाबपोश में
बंद खड़ा
मौक़े की तलाश में “
[ ” बनावटी चेहरे ” ]
इसी कृत्रिमता भरे जीवन में त्रास का बढ़ना विभिन्न समस्याओं को विस्तार देता है और कभी ऐसे अवरोध खड़े कर देता है , जिसे हटा पाना असंभव – सा हो जाता है | असहज रिश्तों के नतीजे में घुटन और टूटन के सिवा हाथ में आता ही क्या है ? ” वक़्त की दीवार ” का कुछ ऐसा ही चित्रण है –
” समय की इस रेस में
दीवारें
ऊँची – ऊँची हो गई हैं
जिसे तोड़ पाना
थोड़ा मुश्किल हो रहा है
क्योंकि ये दीवारें
मिट्टी और रेत से
नहीं बनी हैं ……”
फिर यही दमन और अत्याचार का रूप ले लेता है | चीख़ – पुकार का दौर – दौरा चल पड़ता है | शांति भंग हो जाती है और जीवन तंग और बदहाल हो जाता है –
” ये आवाज़ें
हवा में टकराकर
तुम्हारे कानों में
तांडव कर रहीं —
हैं तुम्हारे आसपास
वादेवाले शब्द
ज़ोर से हवा में
चीत्कार
मचाने आ रहे हैं
तुम्हारी ऊँची दीवारों से
होकर
जहाँ सारे दरवाज़े पर
तुमने काँटे , काँच
बिछाए हैं ! “
[ ” सिर्फ़ एक नाटक ” ]
कवि के दोनों ” कचोट ” मानव – जीवन की पग – बाधा हैं और रहेंगे , जब तक कि इनका उन्मूलन नहीं हो जाता | ” कचोट – 1 ” का शैतान आयातित है , जो मसनू” ई अधिक और अमली कुछ नहीं ! फिर भी यह कहना मुबालग़ाख़ेज़ न होगा कि यह एक सायास प्रसूत मानसिक है , जिसका वजूद उल्लू सीधा होने तक ज़रूर बाक़ी रहता है –
” अँधेरे में
शराब की बोतल तक
अपने को ज़िंदा
समझता है |
ज़रा -सी आहट में
भी ऊपर की
खिड़की की ओर
ताकने लगता है | “
” कचोट -2 ” चांडाल है , जो येन केन प्रकारेण अपनी स्वार्थसिद्धि करता है | इसके लिए वह अपने इष्ट का भी अवमान तक कर डालता है –
” चारों तरफ़
घूमते
घुसते घुसपैठिए
पंडित का दावा
करते हैं और शाम होते
मदिरापान
धज्जियाँ उड़ाने में
कोई कसर नहीं छोड़ी
चंडाल हैं , धर्म की दुहाई
देकर ईश्वर को
भी नहीं बख़्शते “
ऐसे में यथार्थ से पिंड छुड़ाना ही इनके लिए बाक़ी रह जाता है | सब मनगढंत हो जाता है | जीवन रस छन जाता है | फिर क्या स्थिति बन जाती है , इसका सम्यक निरूपण कवि के शब्दों में –
” उपचार के साधनों में
बदलाव की
आन ज़रूरत पड़ सकती है
ऐसे जोखिम से
बचा जा रहा है
और तत्काल
इंजेक्शन देकर
अवसाद की नींद में
सिर्फ़ सुलाया जा रहा है “
” उम्मीद की लौ ” के कई रंग हैं , जिनमें कुछ तो बड़े चटक हैं | भावनाप्रधान कवि की यह विशेषता होती है कि छोटी आशा भी उसके लिए बड़ी लगने लगती है | अतएव मैं इस संग्रह में वह सब कुछ भी पाता हूँ ,जो किसी कवि के प्रथम पुस्तक दर्शन में अमूमन अनुपलब्ध रहता है | इसलिए भी मैं युवा कवियों में अग्रणी कवि दिलीप कुमार पांडेय को तहेदिल से मुबारकबाद पेश करता हूँ |
यह पुस्तक बिंब – प्रतिबिंब पब्लिकेशंस , फगवाड़ा [ पंजाब ] से छपी है | इसमें प्रूफ शोधन में हड़बड़ी और गड़बड़ी दोनों की आमेज़िश है |
– Dr RP Srivastva
Editor-in Chief, ” Bharatiya Sanvad “
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