दुनिया भर में पत्रकारों पर हमले बढ़े हैं | सबसे दुखद तथ्य यह भी है कि पिछले दस सालों में पत्रकार – हत्या का एक भी मामला सॉल्व नहीं किया गया ! सरकार चाहे किसी भी देश की हो,सभी ने एक जैसा रवैया अपनाया है, जबकि सच्चाई यह है कि प्रेस किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का अभिन्न हिस्सा हैं | यह भी सच है कि लोकतंत्र की जो व्यवस्थाएं होती हैं, उनमें प्रेस – मीडिया को चौथे यानी आख़िरी पायदान पर है, जहाँ से उसका गिरना संभव – सा रहता है | वैसे तो लोकतंत्र की इस आख़िरी व्यवस्था का काम अन्य व्यवस्थाओं को ” लोक ”[ जनता ] की ओर से निगरानी करना है, लेकिन यह भी तथ्य है कि इसके नैमित्तिक उद्देश्य और मिशन समय – समय सामने आते रहे हैं | जैसे देश की आज़ादी से पूर्व मीडिया का एकमात्र उद्देश्य देश को आज़ाद कराना था | मगर हमारे देश में आज़ादी के बाद मीडिया का एक उद्देश्य यह नहीं रहा कि देश की तरक़्क़ी के लिए ही अपनी धार तेज़ रखे | समय के फैलाव के साथ मीडिया पूंजीपतियों का हितसाधक अधिक और जनता की पैरवीकार कम होती चली गई | इसका व्यवसायीकरण बढ़ा और आहिस्ता – आहिस्ता पत्रकार भी कुंठा के शिकार होते चले गए, उनका बचा – खुचा मिशन और उदात्त भाव जाता रहा | आज स्थिति यह है कि पत्रकार का अपना कुछ भी नहीं रहा ! उनकी लेखनी ग़ुलाम है मीडिया संस्थानों के मालिकों की ! आज तो और भी बुरा ट्रेंड चल पड़ा है | कुछ ख़ास राजनीतिक दलों ने पत्रकारों के बाद परोक्ष रूप से मीडिया संस्थानों को खरीदना शुरू किया है, जिनसे अपने हितार्थ काम करवाते हैं | इस ख़राब स्थिति में भी कुछ ऐसे पत्रकार और मीडियाकर्मी ऐसे हैं, जो अपने बलबूते पत्रकारिता की गरिमा क़ायम रखने की कोशिश करते हैं और इस कोशिश में विरोधी ताक़तों का कोपभाजन बनते हैं | आज समाज में क़ानून को हाथ में लेने का जो रुझान बढ़ा है, उसके चलते भी पत्रकारों की असुरक्षा बढ़ी है और वे दमन के शिकार हुए हैं | इस दौर में क़ानून को लागू करवाने की ज़िम्मेदारी लेनेवालीं पुलिस ख़ुद क़ानून को हाथ में लिए खड़ी नज़र आती है ! आजकल पत्रकारों पर बढ़ते हमलों की ख़बरें उत्तर प्रदेश में अधिक गूंज रही हैं | लोकसभा में पिछले दिनों पेश राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में यह बात नुमाया है कि उत्तर प्रदेश पत्रकारों की सुरक्षा के मामले में सबसे निचले पायदान पर है | वहां 2013 से लेकर अब तक सात पत्रकारों की हत्याएँ की जा चुकी हैं | इस राज्य में इस अवधि में पत्रकारों पर हमले के 67 मामले दर्ज हुए, जबकि दूसरे नंबर पर पचास मामलों के साथ मध्य प्रदेश और 22 मामलों के साथ बिहार तीसरे स्थान पर रहा | इस दौरान पूरे देश में पत्रकारों पर हमले के 190 मामले दर्ज किए गए | उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के कार्यकाल में पत्रकारों पर सर्वाधिक हमले हुए | ‘ द इंडियन फ़्रीडम ‘ नामक संस्था की 2017 में आई रिपोर्ट में कहा गया था कि 2017 में पूरे देश में पत्रकारों पर 46 हमले हुए , जिनमें से सबसे ज़्यादा 13 हमले पुलिसवालों ने किए | इस मामले में उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त देश के अन्य प्रदेशों की स्थिति अच्छी नहीं है | वस्तुस्थिति यह है कि इस प्रदेश में पत्रकारों के लिए सवाल पूछना और सवाल उठाना अपराध हो गया है। पिछले दिनों से जो ख़बरें मीडिया में आ रही हैं, उनसे पता चलता है कि पत्रकार मानसिक और शारीरिक रूप से कितने आहत किए जा रहे हैं | पिछले दिनों तीन पत्रकारों की गिरफ़्तारी का मामला ठंडा भी नहीं पड़ा था कि शामली में अमित शर्मा नामक पत्रकार को जीआरपी और पुलिस ने जमकर पीटा।
अमित शर्मा विगत 12 जून को शामली में रिपोर्टिंग करने गए थे | एक मालगाड़ी रात को पटरी से उतर गई थी , जिसके न्यूज़ के कवरेज के लिए गए थे। वहां जीआरपी के कर्मचारियों और पुलिस वालों ने उनको जमकर पीटा , हालांकि पीटने वाले दोनों पुलिस वालों का वीडियो वायरल होने के बाद उन्हें सस्पेंड कर दिया गया।पत्रकार का कहना है कि जब मालगाड़ी पटरी से उतरी तो मैं वीडियो बना रहा था | इतने में पुलिस वाले आए और उनसे कैमरा छीनने लगे। इस दौरान कैमरा नीचे गिर गया। जब वे कैमरा उठाने के लिए नीचे झुके, तो सादी वर्दी में पुलिसवालों ने उनकी पिटाई शुरू कर दी और भद्दी गालियां भी दीं। पत्रकार ने कहा कि मेरे पास 3 मोबाइल थे जिसमे रिकॉर्डिंग थी, अब वह गुम कर दिया गया है।
अमित शर्मा ने बताया कि पुलिस ने उन्हें लॉकअप में बंद कर दिया और फिर मुंह में पेशाब भी कर दिया । बाद में दूसरे पत्रकार भी पुलिस थाने पहुंचे। इन पत्रकारों ने कहा कि हम रिपोर्टिंग कर रहे हैं, हमें भी थाने में बंद कर दो। पत्रकार अमित ने बताया कि बीते 11 मई को हमने एक ख़बर चलाई थी, जिसमें दिखाया गया था कि दिल्ली-सहारनपुर ट्रेन में जीआरपी के लोग कैसे वेंडर्स से हफ्ता लेते हैं। उन्हें इस रिश्वतख़ोरी से डेढ़ लाख रुपए की काली कमाई हो रही थी | पत्रकार – प्रताड़ना की अन्य घटना पत्रकार के एक ट्वीट पर हुई | एक ट्वीट पर विगत 8 जून को उत्तर प्रदेश पुलिस ने दिल्ली जाकर प्रशांत कनौजिया के घर से उन्हें गिरफ़्तार किया | इस ट्वीट के साथ प्रशांत ने एक महिला का वीडियो शेयर किया था | प्रशांत की पत्नी जगीशा अरोड़ा ने बताया कि 9 जून को पुलिसकर्मी उनके लखनऊ स्थित आवास में सिविल ड्रेस में आए थे और प्रशांत को गिरफ़्तार करके ले गए | 7 जून को उत्तर प्रदेश के लखनऊ स्थित हज़रतगंज थाने में प्रशांत कनौजिया के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया | उन पर आई.टी. कानून की धाराएँ 500 और 66 लगाई गईं। उन्हें गिरफ़्तार करते समय कोई वारंट नहीं दिखाया गया। बाद में कुछ और धाराएँ जोड़ी गईं। यह केस एक सब इंस्पेक्टर की शिकायत पर दर्ज हुआ , जिसमें मुख्यमंत्री के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी और उनकी छवि ख़राब करने के गंभीर आरोप लगाए गए थे | यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा | सुनवाई के दौरान कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार से कई महत्वपूर्ण सवाल पूछे | कोर्ट ने IPC की धारा 505 के तहत प्रशांत कनौजिया के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज करने पर भी आपत्ति की और सवाल उठाए | इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की जो टिप्पणियां कीं, वे बेहद सराहनीय और महत्वपूर्ण हैं | देश में बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के नागरिक अधिकार को भरपूर संबल और समर्थन प्रदान करती हैं | उल्लेखनीय है कि 11 जून 2019 को प्रशांत कनौजिया की पत्नी जगीशा अरोड़ा की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस अजय रस्तोगी की वेकेशन बेंच ने मामले की सुनवाई के बाद उनकी तुरंत रिहाई का आदेश दिया | बेंच ने साफ़ कहा कि ” किसी चीज़ पर अलग – अलग विचार हो सकते हैं | उन्हें [ प्रशांत कनौजिया को ] शायद वह ट्वीट नहीं करना चाहिए था , मगर उनकी गिरफ़्तारी किस आधार पर हुई ?” कोर्ट ने कहा कि ” अगर कुछ इतना ग़लत हो रहा हो , तो हम चुप नहीं बैठ सकते | हम यह नहीं कह सकते कि हाई कोर्ट या लोअर कोर्ट चले जाइए | ” सुप्रीम कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि ” ऐसा नहीं होता कि लोग सोशल मीडिया पर मौजूद हर चीज़ पर भरोसा कर लें | ऐसे में यह मानने का कोई आधार नहीं है कि एक पोस्ट से लोग गुमराह जाएंगे | ” बेंच ने सवाल किया कि क्या याचिकाकर्ता की आज़ादी छीननी चाहिए थी ? जवाब है कि नहीं | संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों से समझौता नहीं किया जा सकता है | कोर्ट ने साफ़ तौर पर कहा कि प्रशांत कनौजिया को ज़मानत देने के लिए उनके वकील की दलील भी सुनना ज़रूरी नहीं है | ग़ौरतलब है कि पिछले दिनों पत्रकार इशिता सिंह और पत्रकार अनुज शुक्ला की भी गिरफ्तारियां अमल में लाई गईं और ” निंदक नियरे रखियो ” की भावना का सर्वथा परित्याग किया गया | इन गिरफ़्तारियों की कड़ी भर्त्सना भी की गई | नेटवर्क औफ विमेन इन मीडिया (इंडिया) ने पत्रकार प्रशांत कनौजिया, इशिता सिंह और अनुज शुक्ला की गिरफ्तारी की कड़ी निंदा करते हुए उन्हें तुरंत रिहा करने की मांग की | नेटवर्क औफ विमेन इन मीडिया (इंडिया) की ओर से जारी बयान में कहा गया कि प्रशांत कनौजिया एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, जिनके खिलाफ आरोप है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ ट्वीट किया। उन्हें गिरफ़्तार करनेवाली उत्तर प्रदेश पुलिस का कहना है कि ये ट्वीट – जिसमें एक महिला के योगी आदित्यनाथ को लेकर कुछ आरोप हैं – मुख्यमंत्री की छवि को नुकसान पहुँचाता है। एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने अपने बयान में कहा कि ”एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया पत्रकार प्रशांत कनौजिया और नोएडा से संचालित टी वी चैनल ‘ नेशन लाइव ‘ की संपादक इशिता सिंह और इसी चैनल के प्रमुख अनुज शुक्ला की गिरफ़्तारियों की निंदा करती है |’’ गिल्ड ने स्पष्ट कहा, ”पुलिस की कार्रवाई कठोरतापूर्ण, मनमानी और क़ानूनों के अधिकारवादी दुरुपयोग के समान है |’’ सच है, भारतीय लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी है , जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को अपनी उक्त ताज़ा टिप्पणियों में दोहराया है | वैसे भी किसी घटिया लोकतंत्र में भी शासक की आलोचना को सहन किया जाता है, मगर भारतीय लोकतंत्र में, जिसे हर लिहाज से उन्नत और पुष्ट माना जाता है, ऐसी पुलिसिया कार्रवाई बेहद निंदनीय है | वास्तव में पत्रकारों का दमन नागरिकों को संविधान – प्रदत्त मौलिक अधिकारों पर ही नहीं , बल्कि अभिव्यक्ति के अधिकार पर भी एक हमला और संविधान की स्पष्ट अवमानना है | अतः इस बात की बहुत ज़रूरत है कि पत्रकार – उत्पीड़न के प्रत्येक मामले की निष्पक्ष जाँच कराई जाए और दोषियों को दंडित किया जाए | साथ ही उत्तर प्रदेश समेत देश की सभी राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करें कि पत्रकारों के दमन और उत्पीड़न की घटनाएं अब नहीं होंगी और प्रेस व मीडिया को अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी मिलेगी |
– DR RAM PAL SRIVASTAVA, Chief Editor, Bharatiya Sanvad