हमारे देश में रिश्वत लेना और रिश्वत देना दोनों ग़ैर क़ानूनी है , अपराध है , फिर भी दोनों का लगातार फैलाव होता जा रहा है। इसी वर्ष 24 जुलाई को भ्रष्टाचार निवारण संशोधन विधेयक लोकसभा में पारित होने और बाद में क़ानून बनने से ऐसा लगने लगा था कि लोग रिश्वत लेने – देने में पहले के सापेक्ष हिचकेंगे। इस क़ानून में रिश्वत लेने – देने दोनों को अपराध की श्रेणी में लाया गया था और सरकारी कर्मचारियों पर रिश्वत का आरोप तय होने के बाद जेल की सज़ा तीन साल से सात साल तक कर दी, जो पहले छह महीने से लेकर पांच साल तक क़ैद की थी। नए क़ानून के तहत बिचौलिए या तीसरे पक्ष से भी रिश्वत लेने को अपराध माना गया और सज़ा का प्रावधान किया गया। वर्तमान में भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारें तकनीकों की मदद ले रही हैं और भ्र्ष्टाचार विरोधी क़ानून को और भी सख्त बनाने की कोशिशें चल रही हैं। फिर भी ताज्जुब है कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। इंडिया करप्शन सर्वे 2018 के ताज़ा सर्वेक्षण के नतीजे चौंकाने वाले हैं। देश में इस साल घूस देने वालों की संख्या में 11 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। वर्ष 2017 में जहाँ 45% घूस देने की बात स्वीकार की थी, वहीँ इस साल 56% ने माना कि उन्होंने रिश्वत दी है। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल इंडिया और लोकल सर्कल्स की ओर से 50 हजार लोगों पर किए गए देशव्यापी सर्वे में ये नतीजे सामने आए हैं। सर्वेक्षण में यह बात भी उभरकर सामने आई कि पुलिस विभाग और संपत्ति की खरीद फरोख्त में सबसे अधिक भ्रष्टाचार होता है।आधे से अधिक लोगों ने इन्हीं दो विभागों में रिश्वत देने की बात मानी।
सर्वे में शामिल लोगों ने विभिन्न सरकारों की ओर से भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए किए जा रहे उपायों के प्रति भी निराशा जताई। 38 फीसदी लोगों ने कहा कि राज्य सरकारों व स्थानीय प्रशासन ने कुछ कदम तो उठाए हैं, लेकिन वे अब तक निष्प्रभावी ही साबित हुए हैं। वहीँ 48 फीसदी लोगों का मानना है कि राज्य सरकारें इस मोर्चे पर बिलकुल बेहिस हैं और कोई कदम नहीं उठा रही हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में ऐसे तमाम अध्ययन हैं, जो साबित करते हैं कि भ्रष्टाचार से विकास पर नकारात्मक असर पड़ता है। निवेश बाधित होता है और व्यापार की संभावनाएं सीमित होती हैं।
वास्तव में जिस समाज और देश में बुराई को बुराई नहीं समझा जाता हो एवं जनता की संपत्ति को अमानत नहीं समझा जाता हो ,जहां जवाबदेही और अपना जायज़ा लेने का काम नहीं होता , जहां क़ानून को लागू करने वाली एजेंसियां अपने काम के प्रति ईमानदार नहीं हैं , क्या वहां भ्रष्टाचार रोका जा सकता है। कदापि नहीं !
भ्रष्टाचार के बढ़ते ग्राफ़ से सिद्ध है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए आधे – अधूरे मन से की जा रही कोशिशें व्यर्थ होती हैं। लोकपाल भी अभी तक हवा में हैं | आप के लोकपाल को भी मोदी सरकार ने रोककर क़ानूनी दांव – पेंच के हवाले कर दिया था और केजरीवाल सरकार को निबटाने पर पूरा ज़ोर लगा रखा है | भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून में उचित संशोधन करने के साथ ही लोकपाल जैसी व्यवस्था को लागू करने से भ्रष्टाचार पर रोकथाम में काफी मदद मिल सकती है | आर्थिक विकास से ही भ्रष्टाचार उन्मूलन – संभव नहीं | 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भ्रष्टाचार को वैश्विक चलन कहा था | इस वक्तव्य के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री के ऐसी बात करने पर खेद जताया था |
1989 के लोकसभा चुनाव में भ्रष्टाचार का मुद्दा छाया रहा | तबसे लेकर आज तक चुनावी अभियानों में भ्रष्टाचार मिटाने के दावे बढ़चढ़ कर उछाले जाना आम बात हो गई है | ऐसे में इन दावों की क़लई तब खुलती है , जब भारत सूची में बुर्किना फासो, जमैका, पेरु और जाम्बिया जैसे गरीब देशों के पायदान जैसा पाया जाता है | वस्तुस्थिति यह है कि आज हमारा देश भ्रष्टाचार और नैतिक पतन से गंभीर रूप से जूझ रहा है | भ्रष्टाचार पूरी व्यवस्था को चाट रहा है | यह हमारे देशवासियों का दुर्भाग्य है कि जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए अनेक विचारों एवं सिद्धांतों को अपनाया और क़ानूनों व नियमों का सहारा लिया, लेकिन भगवान के बनाये हुए क़ानून से मुंह फेर लिया।
भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं —-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरा जन: ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।। श्रीमद भगवत गीता , अध्याय 3 , श्लोक 21 ]
अर्थात, श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है ।।21।।
जब तक इन्सान के नैतिक अस्तित्व को सबल नहीं बनाया जाएगा और उसके अंदर ईशपरायणता एवं ईशभय नहीं पैदा होगा, तब तक भ्रष्टाचार – उन्मूलन असंभव है | पूरी सृष्टि में केवल इन्सान ही ऐसा प्राणी है , जिसे कर्म और इरादे का अधिकार प्राप्त है | वह ईश्वर द्वारा स्रष्ट सभी जीवों और चीजों में सर्वश्रेष्ठ है , अतः सृष्टि की बहुत – सी चीज़ें उसके वशीभूत की गई हैं , जिनका वह अधिकारपूर्वक उपभोग करता है और कर सकता है | यहां यह तथ्य भी स्पष्ट रहे कि इन्सान के न तो अधिकार असीमित हैं और न ही उपभोग | उसके लिए भी एक सीमा – रेखा है , जिसे मर्यादा कहते हैं | यह चीज़ ही इन्सान को नैतिक अस्तित्व प्रदान करती है | मर्यादा और नैतिक अस्तित्व को बनाये रखने के लिए ही सदाचरण के द्वारा इन्हें परिमार्जित करने एवं जीवन को उच्चता की ओर ले जाने के लिए इन्सान को आध्यात्मिकता की ज़रूरत होती है , जो उसके जीवन की नैसर्गिक , बुनियादी और अपरिहार्य आवश्यकता है |
– Dr RP Srivastava, Editor – in – Chief , ”Bharatiya Sanvad”