अर्थव्यवस्था सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण अंग मानी जा सकती है। क्योंकि इसका सम्बंध सभी लोगों की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति से होता है और उनकी निरन्तर पूर्ति के बिना व्यक्ति के सुखद जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अतः अर्थव्यवस्था की उपयुक्तता और सफलता की कसौटी मुख्य रूप से यह है कि वह समाज के प्रत्येक व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सभी प्रकार के साध्न पर्याप्त मात्रा में न्यूनतम समय और न्यूनतम श्रम में निरन्तरता के साथ उपलब्ध् कराते रहने में समर्थ हो। अर्थात् न केवल उपभोग के सभी पदार्थों का प्रचुर मात्रा में उत्पादन हो बल्कि इस लाभ का वितरण समाज के सभी लोगों में न्यायपूर्वक हो जिससे एक भी व्यक्ति अपने न्यायपूर्ण अधिकार से वंचित न हो।
वर्तमान अर्थव्यवस्था का मूल दोष यह है कि यह अपने लाभ का समाज में न्यायपूर्ण वितरण नहीं करती। इससे पैदा होने वाले लाभ का अधिकांश भाग मुट्ठी भर लोगों को मिल रहा है और समाज का विशाल भाग अपने न्यायपूर्ण अधिकार व संसाधनों के वितरण से वंचित है। इस गलत वितरण के कारण ही समाज में गम्भीर आर्थिक असमानता की स्थिति पैदा होती है जो लोगों में सामन्जस्य के लिए बनाए गए सारे तानेबाने को ध्वस्त कर रही है। इसके कारण ही समाज में हर स्तर पर भीषण टकराव दिखलाई पड़ता है जिसके कारण हर आदमी भी सुरक्षा को खतरा पैदा हो रहा है। अन्याय से उत्पन्न आर्थिक असमानता की यह खाई निरन्तर बढ़ती जा रही है और इसी के साथ समाज में हर स्तर पर टकराव, असुरक्षा और विनाश की भयानकता भी बढ़ती जा रही है।

लोगों में परस्पर सद्भाव, सहयोग, विश्वास और प्रेम के सम्बन्ध् समाप्त होते जा रहे हैं। ये स्थितियां व्यक्ति, परिवार, गांव, शहर, प्रदेश, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय हर स्तर पर दिखाई पड़ रही है। इस स्थिति ने हर आदमी को अति स्वार्थी और धूर्त बनने के लिए मजबूर कर दिया है और उसकी उदारता व कोमल मानवीय संवेदनाओं को बुरी तरह कुचल कर रख दिया है। इसके कारण ध्ररती का हर क्षेत्र अनेक प्रकार के आतंकवाद, नक्सलवाद, अलगाववाद, जघन्य अपराधों व षड्यंत्रों के अघोषित युद्धक्षेत्र में बदल कर रह गया है। संतोष और शान्ति गायब हो गए हैं।
अतः अन्याय से उत्पन्न इन अनेक समस्याओं का एकमात्रा स्थायी व सरल समाधन अर्थ का न्यायपूर्ण वितरण है। न्याय के आधर पर हमको यह स्वीकार करना होगा कि प्रकृति में पाए जाने वाले सभी पदार्थों पर सभी व्यक्तियों का समान अधिकार है। इस अधिकार का सम्बंध् व्यक्ति की योग्यता, क्षमता या पुरुषार्थ से नहीं बल्कि जन्म से है। किन्तु हमको यह भी स्वीकार करना होगा कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की योग्यता, क्षमता और पुरुषार्थ की स्थितियां समान नहीं होती और इनका भी अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान होता है इसलिए अर्थव्यवस्था से उत्पन्न होने वाले शुद्ध लाभ का वितरण भी इन समानताओं और भिन्नताओं को ध्यान में रखकर ही होना चाहिए।
अर्थव्यवस्था में जिसे हम उत्पादन या निर्माण कहते हैं उसमें मूल रूप से हम प्रकृति में पाए जाने वाले प्राकृतिक संसाध्नों का रूपान्तरण करते हैं ताकि उन्हें उपभोग योग्य बनाया जा सके। इसके लिए हमें बौद्धिक और शारीरिक श्रम करना पड़ता है। इस प्रकार इस रूपान्तरण के दो मुख्य घटक होते हैं -1 . मूल प्राकृतिक संसाधन , और 2 . शारीरिक व बौद्धिक श्रम। मनुष्य का निरन्तर यह प्रयास रहा है कि उसे उत्पादन या निर्माण की उपरोक्त प्रक्रिया में कम से कम श्रम करना पड़े। भौतिक विज्ञान की कल्पनातीत उन्नति, जिसने मनुष्य को अनेक प्रकार के यन्त्रा व उपकरण प्रदान किये हैं, मनुष्य की इसी इच्छा का परिणाम हैं। इसके कारण मनुष्य के उपभोग की अनेक वस्तुएँ भारी मात्रा में उपलब्ध् हैं। अनेक प्रकार के यन्त्रों की सहायता से होने वाले उत्पादन में में मानवीय श्रम की भूमिका निरन्तर घटते-घटते गौण होती जा रही है।
किन्तु अब सवाल यह है कि मनुष्य के ज्ञान-विज्ञान के निरन्तर विकास के कारण उत्पन्न हुए इस अतिरिक्त लाभ का समाज में वितरण किस प्रकार हो जिसे हम न्याय की कसौटी पर खरा कह सकें। इसके लिए हमें उत्पादन या निर्माण में लगने वाले दोनों मूल घटकों पर ध्यान देना होगा। उत्पादन या निर्माण का मुख्य घटक प्राकृतिक संसाधन हैं। सभी प्रकार की मशीनें व उपकरण आदि सभी प्राकृतिक संसाधनों से ही निर्मित होती हैं और चूंकि प्राकृतिक संसाधनों पर सबका समान स्वामित्व है इसलिए इनसे प्राप्त अतिरिक्त लाभ को सामूहिक या संयुक्त लाभ माना जाना चाहिये और इस कार्य में श्रम के भाग पर उस व्यक्ति का हक माना जाना चाहिये जिसने श्रम किया है। इस प्रकार न्यायपूर्ण वितरण से कुछ भी श्रम न करनेवाले या कम श्रम करने वाले व्यक्ति की तुलना में अधिक श्रम करने वाले व्यक्ति को लाभ का अधिक भाग मिलना चाहिये और सभी लोग अपने-अपने न्यायोचित भाग का उपभोग करने के लिए स्वतन्त्र हों।
अतः अर्थव्यवस्था से प्राप्त सम्पूर्ण लाभ का न्यायपूर्ण वितरण करने पर सब लोगों को लाभ की कुल मात्रा समान न होकर असमान होनी चाहिये। इसके साथ-ंउचयसाथ यह बात भी स्पष्ट होनी चाहिये कि हर आदमी इस लाभ का उपभोग करने के लिए तो स्वतन्त्रा हो किन्तु उसका संग्रह करने के लिए। व्यक्ति को जो आय प्राप्त होती है वह उसका एक भाग ही उपभोग में खर्च करता है और शेष भाग को सम्पत्ति के रूप में संग्रहित करता है, ताकि भविष्य में वह उसका उपभोग कर सके। सम्पत्ति के रूप में संग्रहित ये साध्न ही उत्पादन में प्रमुख भूमिका निभाते हैं जिसके कारण इनसे अतिरिक्त लाभ उत्पन्न होता है। साध्नों की इस महत्वपूर्ण भूमिका के कारण ही धन पर ब्याज की उत्पत्ति होती है। स्पष्ट है कि धन पर ब्याज के रूप में मिलने वाला लाभ व्यक्ति के परिश्रम के कारण नहीं बल्कि साध्नों की भूमिका के कारण मिलने वाला अतिरिक्त लाभ है। इसलिए न्याय के आधार पर इस पर व्यक्ति का स्वामित्व भी नहीं माना जा सकता।
इसलिए न्यायपूर्ण वितरण के लिए व्यक्ति को एक सीमा तक ही सम्पत्ति के संग्रह की स्वतन्त्राता दी जा सकती है। अतः एक व्यक्ति को एक सीमा से अध्कि संग्रह की छूट केवल इस शर्त के साथ दी जा सकती है कि वह इसके लिए समाज का कर्जदार है और समाज को वह इसका ब्याज देगा। इसे आप इस अतिरिक्त सम्पत्ति का किराया जा रायल्टी भी कह सकते हैं। इस अतिरिक्त सम्पत्ति से ब्याज या किराये के रूप में जो भी आय होगी वह समाज की सामूहिक आय होगी न कि व्यक्ति की। न्याय के आधर पर सम्पत्ति संग्रह का यह अधिकार भी सब लोगों के लिए समान होना चाहिये।
इस सम्पूर्ण विश्लेषण के आधार पर व्यक्ति के सम्पत्ति संग्रह की अध्कितम सीमा का निर्धरण उस समय की सम्पन्नता की स्थिति के आधर पर तय करना होगा जिसकी मात्रा निरन्तर बदलती रहेगी। इसके लिए निजी सम्पत्ति की कुल मात्रा को उस समय की जनसंख्या से भाग दिया जाना चाहिये और उससे प्राप्त मात्रा ही एक व्यक्ति का मूलभूत सम्पत्ति अध्किार होगा जिस पर उसे समाज को कोई ब्याज या किराया नहीं देना होगा किन्तु इससे अध्कि मात्रा पर उसे ब्याज के रूप में समाज को देना होगा। इससे अध्कि मात्रा पर उसे ब्याज के रूप में समाज को देना होगा। सम्पत्ति की यह मात्रा सबके लिए समान अर्थात् औसत सीमा तक होगी। यही एक नागरिक का मूलभूत न्यायपूर्ण सम्पत्ति अध्किार होना चाहिये। अतः न्यायपूर्ण वितरण के लिए इस सूत्र को अपनाया जाना चाहिये –
एक नागरिक को औसत सीमा तक सम्पत्ति रखने का मूलभूत अधिकार होना चाहिये और इससे अध्कि मूल्य की निजी सम्पत्ति पर प्रचलित ब्याज की दर से कर लगा दिया जाना चाहिए एवं इसका वितरण सभी नागरिकों में समान रूप से कर दिया जाना चाहिए। सम्पत्ति की सीमा का निर्धरण और उस पर कर लगाने के लिए उसका मूल्यांकन करना आवश्यक है। न्याय के आधर पर सम्पत्ति के मूल्यांकन का पहला अधिकार उसके संग्रहकर्ता का होना चाहिये और दूसरा अधिकार समाज का। ऐसा करना इसलिए आवश्यक है कि सम्पत्ति का कम मूल्यांकन समाज के साथ अन्याय होगा और अध्कि मूल्यांकन व्यक्ति के साथ। अतः सही मूल्यांकन के लिए पहले संग्रहकर्ता अपनी सारी सम्पत्तियों का पूरा-पूरा विवरण और उनका पृथक-पृथक वर्तमान मूल्य बताए किन्तु कोई अन्य व्यक्ति यदि उसके द्वारा लगाए गए मूल्य से न्यूनतम 20%अध्कि मूल्य लगाकर क्रय करना चाहता हो तो उसे सम्पत्ति का स्वामित्व लगाई गई ध्रनराशि लेकर हस्तान्तरित कर दिया जाना चाहिये तथा पूर्व स्वामी को यह धनराशि प्रदान कर दी जानी चाहिए। इस हस्तान्तरण या क्रय-विक्रय में सरकार या प्रशासन की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए।
वर्तमान अर्थव्यवस्था को प्रमुख दोषों में निजी सम्पत्ति की गोपनीयता का कानून बेहद महत्वपूर्ण है। इसे अनेक विकृतियों की जननी भी कहा जा सकता है। इसको खत्म किए बिना वर्तमान अर्थव्यवस्था को न्यायोचित स्वरूप नहीं दिया जा सकता। इसको समाप्त किए बिना न तो उपरोक्त प्रकार से सम्पत्ति का सही मूल्यांकन करना सम्भव है और न ही हस्तान्तरण। किन्तु इससे भी खतरनाक बात यह है कि निजी सम्पत्ति की गोपनीयता के काले कानून के कारण व्यक्ति की झूठ बोलने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है, सत्ता में बैठे लोग व्यक्ति को ब्लैकमेल करते हैं और शेष पूरा समाज अध्किारविहीन हो जाता है। इसके कारण ही सत्ता और सम्पत्तिवानों में अपवित्रा गठजोड़ होता है जिससे पूरा समाज उनके षड्यन्त्रों का शिकार होता है। इस प्रकार के प्रावधन पूरी तरह से अलोकतान्त्रिाक और अनुचित हैं। इन प्रावधानों का ही यह परिणाम है कि आज देश के सारे नागरिक अपनी आय और सम्पत्ति का नितान्त झूठा विवरण अपनी आयकर विवरणी , आई.टी.आर. में दे रहे हैं। वस्तुस्थिति यह है कि आज एक भी सम्पन्न नागरिक की यह विवरणी सत्य की कसौटी पर खरी नहीं है | ऐसी स्थिति में देश के सारे शासक-प्रशासक, उद्योग-व्यापार, कृषि तथा सेवा के सभी क्षेत्रों में रहकर सम्पन्नता का जीवन जीने वाले लोग समाज को अपनी आय व सम्पत्ति का झूठा विवरण देकर धोखा दे रहे हैं और इसका दण्ड ही देश के अधिकांश लोग गरीबी, बेरोजगारी, अन्याय, अभाव, शोषण और गुलामी के रूप में भोग रहे हैं। निष्कर्ष यह है कि यदि केवल औसत सीमा से अधिक सम्पत्ति रखने वाले मात्रा 12 लाख लोगों की सम्पत्ति पर ब्याज की दर से कर लगा दिया जाए , तो उस एक ही कर से सारे करों से होने वाली आय से कम से कम दस गुनी आय हो सकेगी। इससे अन्य सभी करों को आसानी से हटाया जा सकेगा और उल्टे हर नागरिक को लाभांश के रूप में प्रति मात्रा दस हजार रुपये निरन्तर दिए जा सकते हैं |  – Dr RP Srivastav , Chief Editor , ” Bharatiya Sanvad ”

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