रोहिंग्या समस्या के शीघ्र हल के लिए विभिन्न स्तरों पर जो प्रयास किए जा रहे हैं , उनकी जिंतनी सराहना और प्रशंसा की जाए , कम है , क्योंकि यह पूरी तरह एक मानवीय समस्या है | सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार को निर्देश दिया है कि अगली सुनवाई तक रोहिंग्याओं को वापस न भेजा जाए | दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने अपने बयान में कहा है कि म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमान ‘मानवीय आपदा’ का सामना कर रहे हैं |गुटेरेश ने कहा कि रोहिंग्या ग्रामीणों के घरों पर सुरक्षा बलों के कथित हमलों को किसी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता. उन्होंने म्यांमार से सैन्य कार्रवाई रोकने एवं अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मदद की अपील की है | उन्होंने कहा, “पिछले हफ़्ते बांग्लादेश भागकर आने वाले रोहिंग्या शरणार्थियों की संख्या एक लाख 25 हज़ार थी. अब यह संख्या तीन गुनी हो गई है |” संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने कहा, “उनमें से बहुत सारे अस्थायी शिविरों में या मदद कर रहे लोगों के साथ रह रहे हैं , लेकिन महिलाएं और बच्चे भूखे और कुपोषित हालत में पहुंच रहे हैं |” संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी एजेंसी का कहना है कि बांग्लादेश के अस्थायी शिविरों में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थियों को मिल रही मदद नाकाफी है | संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद के प्रमुख जैद रअद अल हुसैन ने पिछले दिनों कहा, ‘ऐसे वक्त में जब रोहिंग्या अपने देश में हिंसा का शिकार हो रहे हैं, तब भारत की ओर से उन्हें वापस भेजने की कोशिशों की , जिसकी मैं निंदा करता हूं।’ मानवाधिकार परिषद को संबोधित करते हुए हुसैन ने कहा कि करीब 40,000 रोहिंग्या भारत में आकर बसे हैं। इनमें से 16,000 के पास शरणार्थी के तौर पर दस्तावेज हैं। भारत को अंतरराष्ट्रीय कानूनों से बंधे होने की याद दिलाते हुए उन्होंने कहा, ‘भारत इस तरह से सामूहिक तौर पर किसी को निष्कासित नहीं कर सकता। वह लोगों को ऐसे स्थान पर लौटने के लिए मजबूर नहीं कर सकता, जहां उनके उत्पीड़न और अन्य तरीकों से सताए जाने का खतरा है।’ रोहिंग्या लोगों के खिलाफ म्यांमार में जारी हिंसा को लेकर हुसैन ने कहा, ‘अल्पसंख्यक रोहिंग्या समुदाय के खिलाफ हिंसा और अन्याय नस्ली सफाये की मिसाल मालूम पड़ती है।’ संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के सत्र को संबोधित करते हुए जैद रअद अल हुसैन ने पहले 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में हुए आतंकी हमले की बरसी का उल्लेख किया और फिर म्यांमार में मानवाधिकार की स्थिति को लेकर चिंता प्रकट की। उन्होंने बुरुंडी, वेनेजुएला, यमन, लीबिया और अमेरिका में मानवाधिकार से जुड़ी चिंताओं के बारे में बात की। उन्होंने कहा कि हिंसा की वजह से म्यांमार से 270,000 लोग भागकर पड़ोसी देश बंगलादेश पहुंचे हैं। उन्होंने सुरक्षा बलों और स्थानीय मिलीशिया द्वारा रोहिंग्या लोगों के गांवों को जलाए जाने और न्याय से इतर हत्याएं किए जाने की खबरों और तस्वीरों का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि म्यांमार ने मानवाधिकार जांचकर्ताओं को जाने की इजाजत नहीं दी है। ऐसे में मौजूदा स्थिति का पूरी तरह से आकलन नहीं किया जा सकता, लेकिन यह स्थिति नस्ली सफाये की ओर संकेत कर रही है। म्यांमार में करीब दस लाख रोहिंग्या मुस्लिम रहते हैं और वे इस देश में सदियों से रहते आए हैं, लेकिन म्यांमार के बौद्ध और वहां की सरकार इन लोगों को अपना नागरिक नहीं मानती है। इन्हें 2014 की म्यांमार की जनगणना रिपोर्ट में नहीं शामिल किया गया है | इन्हें ‘ रोहिंग्या ‘ कहा जाता है | म्यांमार सरकार ने इन्हें नागरिकता देने से इन्कार कर दिया है , जबकि वे कई पीढ़ियों से म्यांमार में निर्वासित हैं | इस प्रान्त में 2012 से बड़े पैमाने पर रोहिंग्या विरोधी हिंसा जारी है |
अतः रोहिंग्या.लोगों को म्यांमार में भीषण दमन का सामना करना पड़ता है। बरसों से बड़ी संख्या में रोहिंग्या लोग बांग्लादेश और थाईलैंड की सीमा पर स्थित शरणार्थी शिविरों में अमानवीय स्थितियों में रहने को विवश हैं। 1400 ई . के आसपास ये लोग ऐसे पहले मुसलमान हैं जो कि बर्मा के अराकान [ रखाइन ] प्रांत में आकर बस गए थे । इनमें से बहुत से मुसलमान 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला (बर्मी में मिन सा मुन) के राज दरबार में नौकर थे। इस राजा ने मुस्लिम सलाहकारों और दरबारियों को अपनी राजधानी में प्रश्रय दिया था। अराकान म्यांमार की पश्चिमी सीमा पर है और यह आज के बांग्लादेश (जो कि पूर्व में बंगाल का एक हिस्सा था) की सीमा के पास है। इस समय के बाद अराकान के राजाओं ने खुद को मुगल शासकों की तरह समझना शुरू किया। ये लोग अपनी सेना में मुस्लिम पदवियों का उपयोग करते थे। इनके दरबार के अधिकारियों ने नाम भी मुस्लिम शासकों के दरबारों की तर्ज पर रखे गए। 1785 में बर्मा के बौद्ध लोगों ने देश के दक्षिणी हिस्से अराकान पर कब्जा कर लिया। तब उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इलाके से बाहर खदेड़ दिया या फिर उनकी हत्या कर दी। इस अवधि में अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल जाने को मजबूर किए गए , जो अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था।
1824 से लेकर 1826 तक अंग्रेज़ों और बर्मी लोगों के बीच चले युद्ध के बाद 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। तब अंग्रेजों ने बंगाल के स्थानीय बंगालियों को प्रोत्साहित किया कि वे अराकान ने जनसंख्या रहित क्षेत्र में जाकर बस जाएं। रोहिंग्या मूल के मुस्लिमों और बंगालियों को प्रोत्साहित किया गया कि वे अराकान [ रखाइन ] में बसें | ब्रिटिश भारत से बड़ी संख्या में इन प्रवासियों को लेकर स्थानीय बौद्ध राखिन लोगों में विद्वेष की भावना पनपी और तभी से जातीय तनाव पनपा जो अब तक चल रहा है। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में जापान के बढ़ते दबदबे से आतंकित अंग्रेजों ने अराकान छोड़ दिया और उनके हटते ही मुसलमानों और बौद्ध लोगों में हिंसा शुरू हो गई | बहुत से रोहिंग्या मुस्लिमों को उम्मीद थी कि वे अंग्रेजों से सुरक्षा और संरक्षण पा सकते हैं। इस कारण इन लोगों ने जापान विरोधी ताकतों के लिए जापानी सैनिकों की जासूसी की। जब जापानियों को यह बात पता लगी तो उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ यातनाएं देने, हत्याएं और उनकी महिलाओं को सताने का सिलसिला शुरू किया। इससे डर कर अराकान से लाखों रोहिंग्या मुसलमान एक बार फिर बंगाल भाग गए | दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति और 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्रवाई के दौर में रोहिंग्या मुस्लिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, लेकिन तत्कालीन बर्मी सेना के शासन ने यांगून (पूर्व का रंगून) पर कब्जा करते ही अलगाववादी और गैर राजनीतिक दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की।
सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया और इन्हें राज्य विहीन जन घोषित कर दिया | संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्टों में कहा गया है कि रोहिंग्या दुनिया के ऐसे अल्पसंख्यक लोग हैं, जिनका लगातार सबसे अधिक दमन किया गया है। बर्मा के सैनिक शासकों ने 1982 के नागरिकता कानून के आधार पर उनसे नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए हैं। सरकारी प्रतिबंधों के कारण ये पढ़-लिख भी नहीं पाते हैं तथा केवल बुनियादी इस्लामी तालीम हासिल कर पाते हैं।
म्यांमार [ बर्मा ] के शासकों और सैन्य सत्ता ने इनका कई बार नरसंहार किया | इनकी बस्तियों को जलाया गया, इनकी जमीन को हड़प लिया गया, मस्जिदों को बर्बाद कर दिया गया और इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में ये बंगलादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं, थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगाकर बने रहते हैं। 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बंगलादेश चले गए थे | इससे पहले इनको सेना ने बंधुआ मजदूर बनाकर रखा, लोगों की हत्याएं भी की गईं, यातनाएं दी गईं और बड़ी संख्या में महिलाओं से बलात्कार किए गए। संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं रोहिंया लोगों की नारकीय स्थितियों के लिए म्यांमार की सरकारों को दोषी ठहराती रही हैं, लेकिन सरकारों पर कोई असर नहीं पड़ता है। पिछले बीस वर्षों के दौरान किसी भी रोहिंग्या स्कूल या मस्जिद की मरम्मत करने का आदेश नहीं दिया गया है। नए स्कूल, मकान, दुकानें और मस्जिदों को बनाने की इन्हें इजाजत ही नहीं दी जाती है। अति दुःख और आश्चर्य की बात यह है कि रोहिंग्या विरोधी हिंसा में बौद्ध भिक्षु भी भाग लेने लगे हैं। इस स्थिति को देखने के बाद भी लोकतंत्र एवं मानवाधिकार की दम भरनेवाली म्यांमार की सत्ताधारी नेता आंग सान सू की चुप हैं | बोलती हैं तो केवल यह कि रोहिंग्या म्यांमार के नागरिक नहीं हैं , अर्थात वही सुर जो हिंसावादियों का है , वही सू की का है | म्यांमार का कोई भी नेता नहीं कहता कि रोहिंग्या को देश का वैधानिक नागरिक बनाया जाएगा | सब फ़ौजी शासकों से डरे हुए हैं | इन शासकों ने बड़ी कुटिल नीतियां अपनाई हैं | इन्होंने आंग सान सू की के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक आंदोलन का असर कम करने के लिए दो फॉर्मूलों पर अमल किया था । एक तो चीन के साथ नजदीकी बनाकर भारत के लोकतंत्र समर्थक रुझान को कुंद कर दिया और दूसरीओर बहुसंख्यक कट्टरपंथ की पीठ पर अपना हाथ रखकर खुद को धर्म-संस्कृति और राष्ट्रीय अखंडता के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में पेश किया। इसमें वे कामयाब रहे और सू की को ” आत्म समर्पण ” करना पड़ा | अब सही मायने में संयुक्त राष्ट्र ही रोहिंग्या मुसलमानों के हितार्थ एक बड़ी शक्ति के रूप में सामने है | संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने म्यांमार को चेतावनी दी है कि यदि वह एक विश्वसनीय देश के रूप में देखा जाना चाहता है , तो उसे देश के पश्चिमी हिस्से में रह रहे अल्पसंख्यक मुसलमानों पर बौद्धों के हमले रोकना होगा | संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि कुल आठ लाख रोहिंग्या आबादी का करीब एक चौथाई भाग विस्थापित है और उससे ज्यादा बुरा हाल अभी दुनिया की अन्य किसी भी विस्थापित कौम का नहीं है | रोहिंग्या विस्थापितों का सबसे बड़ा हिस्सा थाईलैंड और बांग्लादेश में रह रहा है, लेकिन अब भारत, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे नजदीकी देशों में भी वे मौजूद हैं | भारत आतंकी कनेक्शन के चलते उन्हें अपने यहाँ से निकालना चाहता है | बोधगया में हुए बम विस्फोटों से जुड़कर म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों का नाम चर्चा में आया था , जबकि पिछले साल आईबी की एक रिपोर्ट में इनके प्रति आशंका जताई गई थी | अभी पिछले दिनों ख़ुफ़िया विभाग की यह रिपोर्ट भी आई है कि रोहिंग्या शरणार्थी नगालैंड में बड़ा हमला कर सकते हैं | डॉ हजार से अधिक रोहिंग्याओं को आई एस आई एस के आतंकी ट्रेनिंग दे रहे हैं | ट्रेनिंग लेनेवालों में मस्जिद के इमाम भी शामिल हैं | इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि रोहिंग्या को भारत में रहने दिया जाना चाहिए |
– Dr RP Srivastava