खासमखास

” शब्द – शब्द ” का रेशा – रेशा भेदने में सफलता 

राम पाल श्रीवास्तव जी का “शब्द-शब्द” काव्य संग्रह जैसे ही खोला तो पाया कवि ने सबसे पहले तो देश के विभिन्न प्रांतों के कवियों की खूबसूरत कविताओं के साथ और उनकी भरपूर जानकारी के साथ एक कोलाज बना दिया है। पहला शब्द आपको अपने मोहपाश में बांध लेता है। फिर Read more…

सामाजिक सरोकार

सृजनशील पत्रिकाओं में शीर्ष पर ” पूर्वापर ” 

वरिष्ठ साहित्य सेवी लक्ष्मी नारायण अवस्थी जब पिछले दिनों मेरे आवास पर पधारे , तो ” पूर्वापर ५९ ” [ त्रैमासिक ] का अंक मुझे अवलोकनार्थ इनायत किया | इसका प्रकाशन गोंडा से होता है | अच्छा लगा इसे सरसरी तौर पर देखकर , इसलिए भी कि गोंडा जैसे आंचलिक Read more…

खासमखास

पत्रकारों का दमन बनाम लोकतंत्र की मौत  

दुनिया भर में पत्रकारों पर हमले बढ़े हैं | सबसे दुखद तथ्य यह भी है कि पिछले दस सालों में पत्रकार – हत्या का एक भी मामला सॉल्व नहीं किया गया ! सरकार चाहे किसी भी देश की हो,सभी ने एक जैसा रवैया अपनाया है, जबकि सच्चाई यह है कि प्रेस किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का अभिन्न हिस्सा हैं | यह भी सच है कि लोकतंत्र की जो व्यवस्थाएं होती हैं, उनमें प्रेस – मीडिया को चौथे यानी आख़िरी पायदान पर है, जहाँ से उसका गिरना संभव – सा रहता है | वैसे तो लोकतंत्र की इस आख़िरी व्यवस्था का काम अन्य व्यवस्थाओं को ” लोक ”[ जनता ] की ओर से निगरानी करना है, लेकिन यह भी तथ्य है कि इसके नैमित्तिक उद्देश्य और मिशन समय – समय सामने आते रहे हैं | जैसे देश की आज़ादी से पूर्व मीडिया का एकमात्र उद्देश्य देश को आज़ाद कराना था | मगर हमारे देश में आज़ादी के बाद मीडिया का एक उद्देश्य यह नहीं रहा कि देश की तरक़्क़ी के लिए ही अपनी धार तेज़ रखे | समय के फैलाव के साथ मीडिया पूंजीपतियों का हितसाधक अधिक और जनता की पैरवीकार कम होती चली गई | इसका व्यवसायीकरण बढ़ा और आहिस्ता – आहिस्ता पत्रकार भी कुंठा के शिकार होते चले गए, उनका बचा – खुचा मिशन और उदात्त भाव जाता रहा | आज स्थिति यह है कि पत्रकार का अपना कुछ भी नहीं रहा ! उनकी लेखनी ग़ुलाम है मीडिया संस्थानों के मालिकों की ! आज तो और भी बुरा ट्रेंड चल पड़ा है | कुछ ख़ास राजनीतिक दलों ने पत्रकारों के बाद परोक्ष रूप से मीडिया संस्थानों को खरीदना शुरू किया है, जिनसे अपने हितार्थ काम करवाते हैं | इस ख़राब स्थिति में भी कुछ ऐसे पत्रकार और मीडियाकर्मी ऐसे हैं, जो अपने बलबूते पत्रकारिता की गरिमा क़ायम रखने की कोशिश करते हैं और इस कोशिश में विरोधी ताक़तों का कोपभाजन बनते हैं | आज समाज में क़ानून को हाथ में लेने का जो रुझान बढ़ा है, उसके चलते भी पत्रकारों की असुरक्षा बढ़ी है और वे दमन के शिकार हुए हैं | इस दौर में क़ानून को लागू करवाने की ज़िम्मेदारी लेनेवालीं पुलिस ख़ुद क़ानून को हाथ में लिए खड़ी नज़र आती है ! आजकल पत्रकारों पर बढ़ते हमलों की ख़बरें उत्तर प्रदेश में अधिक गूंज रही हैं | लोकसभा में पिछले दिनों पेश राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में यह बात नुमाया है कि उत्तर प्रदेश पत्रकारों की सुरक्षा के मामले में सबसे निचले पायदान पर है | वहां 2013 से लेकर अब तक सात पत्रकारों की हत्याएँ की जा चुकी हैं | इस राज्य में इस अवधि में पत्रकारों पर हमले के 67 मामले दर्ज हुए, जबकि दूसरे नंबर पर पचास मामलों के साथ मध्य प्रदेश और 22 मामलों के साथ बिहार तीसरे स्थान पर रहा | इस दौरान पूरे देश में पत्रकारों पर हमले के 190 मामले दर्ज किए गए | उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के कार्यकाल में पत्रकारों पर सर्वाधिक हमले हुए | Read more…