साहित्य

इनसे मिलिए ये हैं …….

पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पाँव जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़ जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़ गट्टों-सी जंघाएँ निष्प्राण Read more…

साहित्य

त्रिविष्टप और अर्धनारीश्वर 

कभी नहीं चाहा था वह बदनुमा त्रिविष्टप शील – शुचिता, मर्यादा रहित उच्छृंखल, उद्दंड विलासी समाज त्रिविष्टप सरीखा जो स्वर्ग होकर भी नरक बना ! आर्यावर्त की पांचाली संस्कृति का मूक गवाह बना ! शायद इसीलिए त्रिपुरारी शिव ने न त्रिविष्टप रीति को पसंद किया न ही आर्यावर्त कुनीति को Read more…

साहित्य

मगर जीवन नहीं छिना करता है 

सब कुछ छिन जाता है , मगर जीवन नहीं छिना करता है कण – कण प्रस्तर चूर्ण बनकर दर्पण नहीं मरा करता है दिव्य सुधावर्षण नभ – व्योम से , पल में क्षण छिन जाता है चतुर्दिक आभा हो किंचित, मगर अवसर नहीं मरा करता है , सब कुछ छिन Read more…

साहित्य

सत्कर्म तुम करते रहो

  सत्कर्म तुम करते रहो जो कभी मिटता नहीं ,पाषाण पर रोपा गया पौधा कभी फलता नहीं . उठो , हिम्मत – हौसले से निज कर्तव्य में लग जाओ कुंठा ,निराशा , हताशा को पास कभी मत लाओ जो है सच्चा इन्सान कभी पुरुषार्थ से डिगता नहीं , पाषाण पर Read more…

साहित्य

दीपक की सामूहिक खोज

[ 1 ] कोई ऐसा चराग़ लाओ मेरे दोस्तो , जो हर शै को अँधेरे से निकाल लाए | – राम पाल श्रीवास्तव ‘अनथक’ [ 2 ] आओ सब मिलकर एक – एक दीप जलाएं , अब मुश्किल नहीं है अँधेरे को मिटाना | -राम पाल श्रीवास्तव ‘अनथक’

साहित्य

न किसी की आँख का नूर हूँ : बहादुर शाह ज़फ़र

न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ जो किसी के काम न आ सका मैं वो एक मुश्ते गु़बार हूं मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा बख़्त मुझसे बिछड़ गया जो चमन ख़िज़ां में उजड़ गया मैं उसी की फस्ले बहार हूं मैं Read more…

साहित्य

शक्ति दो ऐसी कि यह वाणी सदा स्पंदित रहे 

इधर दानव पक्षियों के झुंड उड़ते आ रहे हैं क्षुब्ध अम्बर में , विकट वैतरणिका के अपार तट से यंत्र पक्षों के विकट हुँकार से करते अपावन गगन तल को , मनुज – शोणित – मांस के ये क्षुधित दुर्दम गिद्ध . कि महाकाल के सिंहासन स्थित हे विचारक शक्ति Read more…

साहित्य

विभीषिकाएं – घबराइए नहीं , दुःख निर्मलकर्ता है

मानवता को देख डूबते , अंधकार के आलोक में कुपित सलिला उफनाई दुःख – अशांति के शोक में ! मनुजता ही निःशेष नहीं तो मान्यता किस काम की ? बीते कोप बिसार लगें हम नव – निर्माण के लोक में | ……. पौरुष है कहता , बिखराएं किरण नव – Read more…

धर्म

मिटा दे अपनी हस्ती को……

मिटा दे अपनी हस्ती को , अगर कुछ मर्तबा चाहे | कि दाना खाक में मिलकर गुले गुलज़ार होता है || – अल्लामा इक़बाल व्याख्या – ऐ जीव , यदि तू कुछ प्राप्त करने का इच्छुक है , तो अपने अस्तित्व को अर्थात अपनी अहंता को पूरी तरह मिटा दे Read more…