साहित्य

अब मुझे क़ुरबां अपनी ही फ़िक्र है

अब मुझे क़ुरबां अपनी ही फ़िक्र है , मैं भला किसी को कैसे बुरा कहूँ | मगर नहीं वजूद मेरा झुका हुआ , मैं भला उसको कैसे बेसुरा कहूँ | अब नहीं मुझे किसी का ख़ौफ़ रहा , क्या कहूँ , किसको यूँ आमिरा कहूँ | तेरी पारसाई क्यों न चली Read more…

साहित्य

ज़िन्दगी काहे को है , ख़ाब है दीवाने का 

मनुष्य जब सृष्टि के आयामों – उपादानों एवं उसके सौन्दर्य को देखता है तो उसके मन में कभी यह विचार आता ही है कि यह सब क्या और क्यों है ? मिर्ज़ा ग़ालिब सहज ही कह उठते हैं – ये परी चेहरा लोग कैसे हैं ? गमज़ा व इशवा व Read more…