सामाजिक सरोकार

शब्द – परिधान

शब्द अपने भाव और अर्थ कैसे बदल लेते हैं ? कहां से चलकर कहां पहुंच जाते हैं ? इसी केंद्रीय विषय पर पेश हैं दो भिन्न शिल्प सौंदर्य में दो काव्य रचनाएं – ( 1 ) शब्द – परिधान ………………… कितना सुंदर मुखड़ा तेरा कितनी बेहतर भाषा है जैसा सोचो Read more…

सामाजिक सरोकार

शब्द भर जीवन

शब्द भर जीवन ………………….. ये शब्द… चलते हैं मेरे जीवन के साथ – साथ जीवन भर निरंतर इक आशा लिए ! रीतने की प्रक्रिया में स्थानापन्न बनते हुए ये शब्द… खो जाते किसी अदृश्य जगत में अपने ” जोम ” में नैमित्तिक वास स्थान की ओर अपनी दुनिया में … Read more…

धर्म

मैं कभी नहीं लिख पाऊंगा वह कविता…!

……………….. मैं सोचता हूं – मैं कभी नहीं लिख पाऊंगा वह कविता जो वृक्ष के सदृश है जिसके भूखे अधर लपलपा रहे धरा – स्वेदन – पान को आतुर वह वृक्ष जो दिन और रात देखता है ईश्वर को ! गिराता है अपने शस्त्र – रूप पत्ते इबादत के निमित्त Read more…

साहित्य

चलते जाइए, जहां ले जाएं ये हवाएं …..

मैं सूखा पत्ता हूं मेरा व्यवहार इसी के सदृश है! मैं वह पत्ता हूं ज्ञानलोक का जो हवाओं के संग चलता है या शायद मजबूर है चलने को जहां चाहें वे ले जाएं यही खोज है मेरे सत्य की यथार्थ है मेरे जीवन का इसके आगे हर कोशिश व्यर्थ है Read more…

साहित्य

ख़ुशी के पल संजोएं 

[ एक पूर्व मंत्री जी की भार्या और मेरी आदरणीया बहन सुनीता शर्मा जी के आलेख , जो जीवन से उदासी और निराशा के वातावरण को दूर भगाने पर केन्द्रित था , पर मेरी एक फेसबुकी प्रतिक्रिया | यह बात 2011 की है | मेरी इस प्रतिक्रिया के बाद सुनीता Read more…

साहित्य

विभीषिकाएं – घबराइए नहीं , दुःख निर्मलकर्ता है

मानवता को देख डूबते , अंधकार के आलोक में कुपित सलिला उफनाई दुःख – अशांति के शोक में ! मनुजता ही निःशेष नहीं तो मान्यता किस काम की ? बीते कोप बिसार लगें हम नव – निर्माण के लोक में | ……. पौरुष है कहता , बिखराएं किरण नव – Read more…